नवनिर्वाचित कुश्ती संघ का निलंबन! ‘‘कानूनी’’ व ‘‘तथ्यात्मक रूप’’ से गलत।
राजीव खंडेलवाल
कुश्ती संघ के चुनाव संपन्न
लंबे समय लगभग एक वर्ष पूर्व जनवरी से प्रारंभ हुई भारतीय कुश्ती संघ (रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया-डब्लू.एफ.आई) व खिलाड़ियों के बीच विवाद के चलते 28 नवंबर को उच्चतम न्यायालय द्वारा पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा भारतीय कुश्ती संघ के चुनाव पर लगाई गई रोक को हटाते हुए उच्च न्यायालय में लंबित याचिका के परिणाम के अधीन चुनाव कराने के निर्देश दिए। अंततः 21 दिसंबर को कुश्ती संघ के बाकायदा नियमानुसार चुनाव कराए गए। अध्यक्ष पद पर निवर्तमान अध्यक्ष सांसद, बाहुबली व यौन उत्पीड़न के गंभीर अपराध का आरोपी, बृजभूषण शरण सिंह के बेहद करीबी विश्वास पात्र भागीदार, कुश्ती संघ के मंत्री तथा लगभग पिछले 12 वर्षों से कुश्ती संघ में रहे संजय सिंह भारी बहुमत से चुने गए। उल्लेखनीय बात यह कि संजय सिंह हरियाणा की राज्य पुलिस सेवा में कार्यरत अनिता श्योराण जिन्होंने ओडिशा इकाई के रूप में नामांकन भरा था, (जिसे कानूनन गलत बतलाया गया है) तथा जो बृजभूषण सिंह के खिलाफ लगे आरोप में एक गवाह भी है, को हराया। नागरिकों में मान-सम्मान, स्वाभिमान, आत्म स्वाभिमान व नैतिकता की ‘‘कमतर’’ होती भावना तथा चाटुकारिता की वृत्ति में निरंतर वृद्धि होने से ऐसे परिणाम अवश्यसंभावी ही थे।
*बनी सहमति के विपरीत चुनाव परिणाम !*
महिला कुश्ती खिलाड़ियो द्वारा आंदोलन वापस लेते समय गृहमंत्री अमित शाह व खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के साथ हुए समझौते के समय दोनों पक्षों के बीच अन्य बातों के साथ एक ‘‘समझ’’ यह बनी थी कि कुश्ती संघ से बृजभूषण शरण सिंह की छाया को भी दूर रखा जाएगा तथा कम से कम एक महिला *"संघ"* की पदाधिकारी बनाई जाएगी। परंतु ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि तकनीकी रूप से सरकार या खेल मंत्रालय के हाथ में यह बात थी ही नहीं। क्योंकि किसी चुनना है यह अधिकार सिर्फ मतदाता के पास होता है। चुनाव कराने वाली संस्था अथवा सरकार उसमें अपनी मनमानी नहीं चला सकती है। यद्यपि अपने प्रभाव का उपयोग कर परिणाम को कुछ प्रभावित अवश्य कर सकती है। लेकिन ‘‘नीम पे तो निबोली ही लगती थी’’ लोकतांत्रिक तरीके से संपन्न हुए चुनाव में सरकार या खेल मंत्रालय का कोई सीधा हस्तक्षेप अमूनन नहीं होता है। हां यदि सरकार जिसने खेल मंत्रालय के माध्यम से संघ की चुनी गई पूरी कार्यकारिणी को निलंबित करने में जिस तरह का दबाव अभी बनाया, यदि वैसा ही दबाव चुनाव के पूर्व बृजभूषण सिंह पर बनाया होता, तब परिणाम शायद दूसरे ही होते। साथ ही उच्चतम न्यायालय के द्वारा जिस प्रकार क्रिकेट बोर्ड के संविधान में मंत्री (मिनिस्टर्स), 70 वर्ष से अधिक उम्र, एक व्यक्ति के कार्यकाल की अधिकतम सीमा आदि लगाई रोक को यदि आगे विस्तार कर समस्त खेल संघों में राजनेताओं की प्रविष्टि पर रोक लगा दी जाती, तब खेलों में विवाद की स्थिति ही नहीं होती।
पदक वापसी से विवादों को पुन: हवा!
उम्मीद थी कि चुनाव होने के बाद यह विवाद समाप्त हो जाएगा। परंतु दुर्भाग्यवश यौन अपराधों का आरोपी बृजभूषण सिंह जिसके विरुद्ध न्यायालय में प्रकरण चल रहा है, के ही चेले सिपहसालारों के चुनाव में भारी विजय प्राप्त करने से निसंदेह बृजभूषण शरण सिंह का कुश्ती संघ पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप पूर्व समान पूरी तरह से प्रभाव बना हुआ दिख रहा हैं जो आगे भी रहेगा। इस वस्तुस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता है। प्रत्यक्ष उदाहरण जीतने के बाद अध्यक्ष संजय सिंह को मात्र एक माला पहनाई गई और बृजभूषण सिंह के गले को मालाओं को भर दिया गया। बृजभूषण सिंह के सपुत्र द्वारा किया गया ट्वीट उसकी पूरी स्थिति को और साफ कर देता है, ‘‘दबदबा है..., दबदबा तो रहेगा’। ‘‘बेशर्मी को तेरहवां रत्न’’ यूं ही नहीं कहा गया है। इस कारण से उनके विरुद्ध लड़ रही पीड़ित महिला पहलवान अपने को असहाय स्थिति में पाने से ‘‘अस्मिता’’ के अपमान को लेकर लंबी लड़ाई लड़ने वाली ओलंपिक पदक विजेता साक्षी मलिक (एकमात्र ओलंपिक विजेता महिला पहलवान) ने न केवल कुश्ती से सन्यास लेने की घोषणा कर दी, बल्कि उनके समर्थन में पदक विजेता बजरंग पूनिया ने भी अपना पद्मश्री अवार्ड वापस कर दिया। इसके बाद बबीता फोगाट व विनेश फोगाट ने अपने मेडल्स व डेफ ओलंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट वीरेन्द्र सिंह ने भी अपना पद्मश्री सम्मान वापिस करने की घोषणा की। ‘‘नानक दुखिया सब संसार’’। फलतः कुश्ती संघ का वर्ष के प्रारंभ में शुरू हुआ विवाद वर्ष के अंत में फिर से सुर्खियों में आ गया।
जाट समुदाय के बीच फैलता असंतोष!
साक्षी मलिक, बजरंग पूनिया, फोगाट व अन्य महिला पहलवानों के जाट बिरादरी से होने के कारण जाटों के अंदर ही अंदर फैल रहे असंतोष को भांपते हुए शायद भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के इशारों पर खेल मंत्री अनुराग ठाकुर के निर्देश पर खेल मंत्रालय ने धोबी पछाड़ दांव चलाकर उक्त चुनी गई पूरी बॉडी को ही आगामी आदेश तक के लिए *चित* (निलंबित) कर दिया। यानी ‘‘नयी बहू का दुलार नौ दिन’’ भी नहीं साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ को 48 घंटे में तदर्थ बाडी बनाने को कहा।(अभी तीन सदस्यीय समिति बन भी गई है)। साथ ही नवनिर्वाचित अध्यक्ष के लिए गए समस्त फैसलों पर रोक लगा दी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नए चुनाव की प्रक्रिया या वैधता को किसी भी व्यक्ति ने गैरकानूनी या अनियमितता होने के आधार पर कोई चुनौती नहीं दी थी। साथ ही निलम्बन की यह कार्यवाही किये जाने के पूर्व संघ या पदाधिकारियों को कोई कारण बताओं सूचना पत्र नहीं दिया गया। यद्यपि निर्वाचन के तुरंत बाद की गई बैठक में नवनिर्वाचित प्रधान सचिव प्रेमचंद शामिल नहीं हुए थे व जूनियर राष्ट्रीय खेल आयोजन का निर्णय उनकी जानकारी के बिना किया गया था। जबकि प्रधान सचिव का यह कहना है कि सचिव की अनुपस्थिति में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इसलिए प्रधान सचिव ने लिखित में आपत्ति ली।
सतही आरोप जिनका चुनावी प्रक्रिया से संबंध नहीं!
सरकार की ओर से यह कहा गया कि जो पदाधिकारी चुने गए हैं, उनके पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह से बड़े करीबी संबंध है व पिछले पदाधिकारीयो के पूर्ण नियंत्रण में प्रतीत होता है। प्रश्न यह है कि क्या कुश्ती संघ के नियम या देश के किसी भी खेल संस्था के नियम में ऐसा कोई प्रावधान है कि जहां पूर्व अध्यक्ष के करीबियों को चुना नहीं जाना चाहिए? क्या मतदाताओं को किसी विशिष्ट व्यक्ति को चुनने या न चुनने का निर्देश दिया जा सकता है। लोकतंत्र में यह क्या एक नई परिपाटी नहीं होगी? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है जो आगे लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। निश्चित रूप से कुश्ती संघ के चुनाव का परिणाम ‘‘नैतिकता’’ से जुड़ा हुआ है, न की कानूनी प्रक्रिया से। निर्वतमान अध्यक्ष पर 7 कुश्ती महिलाओं ने ‘‘यौन अपराध’’ के आरोप लगाए थे और कुश्ती महासंघ के ‘‘मतदाताओं’’ ने उक्त गंभीर आरोप को नजर अंदाज करते हुए ऐसे व्यक्तियों को चुना जो आरोपी बृजभूषण सिंह के ‘‘ताश के पत्ते’’ है। जिनको ‘‘ फेंटने का अधिकार’’ सिर्फ उन्हीं के पास बना हुआ है। यह नैतिकता के गिरते हुए स्तर का एक बड़ा उदाहरण है, जो वस्तुतः सामाजिक दर्पण एवं व्यवस्था पर एक तमाचा ही है। जिस पर गहन चितंन-मनन की आवश्यकता है।
संघ के निर्णयों में नियमों की अनदेखी!
वैसे तो ‘‘ *धतूरे के गुण महादेव ही जानें’’* लेकिन केंद्रीय खेल मंत्रालय की हस्तक्षेप कर राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की गई यह कार्रवाई किसी भी तरीके से कानूनी रूप से उचित नहीं ठहराई जा सकती है। एक अनेतिकता को दूर करने के लिए दूसरा अनैतिक कदम नहीं उठाया जा सकता है। यह आरोप लगाया गया कि नए चुने हुए संघ ने संविधान के अनुच्छेद xi के अनुसार 15 दिवस व आपातकालीन स्थिति में 7 दिवस की अवधि के प्रावधान के विपरीत बैठक तुरंत कर अंडर 15 और अंडर 20 वर्ष की जूनियर राष्ट्रीय कुश्ती खेल प्रतियोगिता को बृजभूषण सिंह के गृह जिला गोंडा में जल्दबाजी में आयोजित करने की घोषणा को प्रक्रिया व नियमों का उल्लंघन बतलाया। क्या इस आधार पर मात्र 3 दिन पहले ही चुने गए संपूर्ण बोर्ड को निलंबित किया जा सकता है? अथवा यह उठाया गया *चरम कदम* कितना उचित है? जिस *जल्दबाजी* के आधार पर संघ की बैठक को अनुचित ठहराया गया, क्या वही जल्दबाजी की गलती खेल मंत्रालय ने संघ को निलंबित कर नहीं की? यदि *जल्दबाजी* करना ही थी तो बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध पास्को एक्ट के अंतर्गत जब अपराध दर्ज हुआ था, तभी तुरंत गिरफ्तारी जो कानूनी रूप से भी आवश्यक थी, कर ली जाती तो मसला यहां तक नहीं पहुंचता। यदि *बैठक के आयोजन* पर व उसमें लिये निर्णय में किसी नियम का पालन नहीं किया गया है तो, अधिकतम संघ के खेल आयोजन के उस निर्णय को ही रद्द करने की मात्र आवश्यकता थी, जो की गई। परन्तु बाडी निलम्बित नहीं करना चाहिए था। नियमों का पालन कर नई तारीख में राष्ट्रीय खेल आयोजन करने की निर्देश संघ को दिए जाने थे। जबकि संघ का यह कहना है कि 31 दिसम्बर के पहले यदि यह राष्ट्रीय आयोजन नहीं किया गया तो सैकड़ों जूनियर खिलाड़ियों का एक वर्ष का केरियर बर्बाद हो जायेगा। इसीलिए उन्हे तुरंत-फुरंत यह निर्णय मजबूरी में लेना पड़ा।
अराजक स्थिति -अराजक हाथियार!
संघ पर खेल मंत्रालय ने यह आरोप भी लगाया कि अभी भी बृजभूषण सिंह के घर से ही संघ का कामकाज चलाया जा रहा है। कुछ घंटों में या चंद दिनों में ही नया भवन दफतर के लिये मिलना संभव नहीं है। संघ के अध्यक्ष का यह कहना है कि बिना सचिव के निर्णय लेना का अध्यक्ष को अधिकार है, जिसे सचिव मानने के लिए बाध्य है। चूंकि खेल की उन्नति के लिए संघ निलंबित नहीं किया गया था। बल्कि इसके पीछे छिपा उद्देश्य राजनैतिक था। इसलिए यदि सिर्फ उक्त निर्देश दिए जाते तो संघ का निलम्बन नहीं होता और तब उनकी राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाती। इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि एक ‘‘अराजक स्थिति’’ से निपटने के लिए ‘‘अराजक हथियार’’ का ही उपयोग करना होगा। ‘‘नाक दबाने से ही मुंह खुलता है’’, और यह सिद्धांत सिर्फ खेल पर ही लागू नहीं होता है, बल्कि देश की राजनीति से लेकर अन्य क्षेत्रों में भी लागू होता है, और हो रहा है। इससे निश्चित रूप से लोकतांत्रिक संस्थाएं और लोकतंत्र पर आंच आ सकती है। इससे बचा जाना चाहिए। इस प्रकार खेल मंत्रालय पर्यवेक्षण में हुए चुनाव नवनिर्वाचित कुश्ती संघ को भंग करने का लिया गया निर्णय किसानों के तीनों कानून को वापस लेने के निर्णय के समान ही है।