राजीव खंडेलवाल
हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित भारी हार ने भाजपा नेतृत्व के माथे पर चिंतन की भारी लकीरें खीच दी हैं। चिंतन की लकीरे सिर्फ आगामी होने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर ही नहीं हैं। इनमें से दो राज्यों में तो कांग्रेस सत्ता में है तथा एक में भाजपा ने जनादेश का मानमर्दन कर सत्ता प्राप्त की, तथा एक अन्य प्रदेश तेलंगाना में भाजपा लगभग नगण्य स्थिति में है। भाजपा हाईकमान को चारों प्रदेशों से मिल रही लगातार चिंतनीय खबरों को देखते हुए चिंता का मुख्य कारण विधानसभा चुनाव न होकर वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव हैं, जहां अभी तक भाजपा 300 के पार का दावा करती थकती नहीं थी। परन्तु अब बहुमत पाने के ही लाले पड़े रहे है। ‘‘आज तक’’ (इंडिया टुडे-सी-वोटर) के नवीनतम सर्वे में आज चुनाव होने पर एनडीए को 306 (भाजपा को नहीं, जो आंकडा पिछले चुनाव में था) सीटे मिलती हुई दिख रही हैं। वोटों के हिसाब से 43 प्रतिशत एनडीए एवं 41 प्रतिशत इंडिया को मिलने की संभावना बताई गई है। हम सब जानते है कि मुख्य धारा के न्यूज चैनलस् की मजबूरी आर्थिक व राजनीतिक दबाव के कारण कहीं न कहीं भाजपा को वस्तु स्थिति को बढ़ाकर बढ़त दिखाने की होती है। इसलिए इस सर्वे से यह तो स्पष्ट है कि एनडीए को ही बहुमत के लाले पड़ रहे हैं। क्योंकि सर्वो में सामान्यतया भाजपा को कहीं न कही 20-25 प्रतिशत तक वास्तविकता से ज्यादा बढ़त दिखाने का प्रयास सर्वे एजेंसियां अपने *हितों* को सुरक्षित करने के कारण करती ही है। "अंतर अंगुली चार का, झूठ सांच में होय"। वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक भी है।
भाजपा की चिंता
अतः यदि आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव में विपरीत परिणाम मिलते हैं, जैसे कि लगभग आसार/आशंका लगातार व्यक्त की जा रही है, तो इसका निश्चित ‘‘दुष्प्रभाव’’ लोकसभा चुनाव पर पड़ना स्वभाविक है। तब शायद एनडीए को भी बहुमत पाने के ‘‘लाले’’ पड़ जाये। "आवाज़े ख़ल्क़ को नक्कारा ए ख़ुदा समझना चाहिए"। यही कारण है कि संघ व भाजपा का नेतृत्व इन राज्यों में खासकर मध्यप्रदेश में जहां लगातार चिंतन, मंथन भी अभी तक निश्चयात्मक परिणाम दशा, दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। देश का हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश वह प्रदेश रहा है, जो भाजपा की मूल जनसंघ की कर्मभूमि रही है, जिसे वर्तमान भाजपा की प्रयोगशाला कहा जाए जो गलत नहीं होगा। यद्यपि पिछले विधानसभा चुनाव के परिणामों ने यह भी सिद्ध किया है कि विधानसभा चुनावों में हुई हार के बावजूद, तत्काल बाद में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हीं प्रदेशों में अच्छी खासी ही नहीं, बल्कि अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की थी। उक्त सफलता की दोहराए जाने की संभावनाओं से पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है। क्योंकि तब सिंगल वोट मोदी की सरकार को देना होता है। इसके सफल होने पर ही राज्यों की ट्रेन में डबल इंजन होगा।
प्रधानमंत्री के लगातार दौरे!
प्रधानमंत्री के पिछले तीन महीनों में हुए मध्यप्रदेश के लगातार दौरे जिसमें भोपाल का वह चर्चित चेतावनी संदेश देने वाला दौरा भी रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप ही महाराष्ट्र के बन गये नये वर्तमान हालात माने जा रहे हैं। अतः यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि मध्यप्रदेश में भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने जा रही है। वैसे भी राज्यों के संबंध में यह कोई नई बात नहीं है। आप किसी भी राज्य के चुनाव को देख लीजिए, भाजपा ने वे सब चुनाव प्रायः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही लड़े हैं। हिमाचल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल का या उनके गृह राज्य गुजरात का हो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही विधानसभा चुनाव लड़े गये। परन्तु अब मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री के चेहरे के संबंध में नीति थोडी बदली गई लगती है। पहली बार शिवराज सिंह सरकार के विज्ञापनों में अब मोदी-शिवराज ( *मोदी पहले शिवराज बाद में)* सरकार का उल्लेख किया जा रहा है, जो पिछले आम चुनाव में नहीं था। अर्थात प्रधानमंत्री के चेहरों को शिवराज सिंह के चेहरे के साथ नहीं बल्कि उनके ऊपर रखकर शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न किया जाकर सिर्फ मोदी के नाम पर केन्द्रित करने की चुनावी रणनीति बनाई जा रही है।
‘‘मामा’’ के साथ अब ‘‘भाई’’ शिवराज
यदि हम मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बात करे तो भाजपा शासित किसी भी प्रदेश की तुलना में शिवराज सिंह चौहान पिछले लगभग 17 सालों से लगातार लोकप्रिय चेहरे के रूप में रहे है। पहले ‘‘मामा’’ और अब साथ में ‘‘भाई’’ (लाडली बहना योजना के कारण) के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं।
सत्ता विरोधी कारक-शिवराज सिंह का चेहरा
याद कीजिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जब नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री के पद के लिए नाम आया था, तब लालकृष्ण आडवानी ने शिवराज सिंह का नाम आगे किया था। इससे उनकी महत्ता स्थापित होने के बावजूद और पंचायत स्तर तक उनकी लोकप्रियता व अपनी पहचान बनाये रखने के बावजूद यदि भाजपा को मध्यप्रदेश में अलग तरीके से मोदी का चेहरा बनाना पड़ रहा है या बनाया जायेगा, तो इसका कारण एकमात्र यही है कि शिवराज सिंह चौहान ने इस समय अपने व्यक्तित्व केे स्वरूप को बड़ा कर *द्विधारी तलवार* के रूप में बना लिया है। शिवराज सिंह ने प्रदेश में नया नेतृत्व पैदा न होने के साथ दूसरे विद्यमान नेतृत्व की धार को *बोठल* कर दिया है। दूरस्थ अंचल तक पूरे प्रदेश में अपनी पहचान बनाई और अपना प्रभाव बनाया। इस कारण भाजपा नेतृत्व को शिवराज सिंह को छेड़ने में कहीं न कहीं भय बना रहता है। शायद इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह को छेड़ने से परहेज भी कर रही है। क्योंकि कर्नाटक में अपने प्रादेशिक मजबूत नेता येदुरप्पा को अपेक्षा के अनुरूप उतना महत्व न दिये जाने का परिणाम भुगत चुकी है। विपरीत इसके नेतृत्व का एक मत यह भी है कि 17 सालों की लम्बी सत्ता की कुर्सी पर विराजमान होने के कारण स्वभावत: उत्पन्न एंटी इनकंबेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी कारक) के पैदा होने के कारण उससे निपटने के लिए शिवराज सिंह की रवानगी ही सबसे सफल अस्त्र होगा। सबसे प्रमुख लक्षण जो चिंताजनक है, वह सत्ता विरोधी कारक संगठन अथवा सत्ता के प्रति उतना नहीं है, जितना शिवराज सिंह के व्यक्तिगत चेहरे को लेकर है। यह तो वही बात हो गयी कि "बूढ़ा हाथी फ़ौज पर भारी"।
शायद इसीलिए इसके पूर्व ‘‘अबकी बार शिवराज सरकार’’ का नारा देने वाले कार्यकर्ताओं से जब बात करते है तो वे अब यह कहते हैं कि ‘‘अबकी बार भाजपा सरकार’’ लेकिन चेहरा शिवराज सिंह चौहान का नहीं। पार्टी के समर्थक लोग भी जो सामान्यतया कोई कमियां या बुराइयां नहीं गिनाते है, वे भी यही कहते है कि *अब तो बख्सो शिवराज!* अतः शिवराज के चेहरे व नाम से ऊब सी गई है, जो सिर्फ कार्यकर्ताओं में नहीं बल्कि उस आम जनता के बीच में भी है, जिनके लिए शिवराज सिंह ने पैदा होने से लेकर जीवन की अंतिम यात्रा तक में निर्धन वर्गो के लिए विभिन्न योजनाएं लागू की है। राजनीति का यह नया और विरोधाभास विरोधाभासी चेहरा, व्यक्तित्व शिवराज सिंह का बन गया है, जिसका सफलता पूर्वक सामना करने की समझ भाजपा अभी तक बना नहीं पा रही है। इसीलिए विभिन्न एजेसियो के लगातार आ रहे आंतरिक सर्वो में, जहां कांग्रेस को अच्छी खासी बढ़त दिखाई जा रही है और विरोधी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में भी कमलनाथ को बढत दिखाई जा रही है, बावजूद इसके भाजपा जीत को सुनिश्चित करने के लिए आगामी चुनाव में शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री या बिना मुख्यमंत्री के रूप में लडाया जाये अथवा नहीं को अंतिम रूप से शायद कुछ समय के भीतर तय कर ही लेगी । मेरा मानना है कि यदि आगे शिवराज सिंह के जनता को लुभावने के समस्त प्रयासों के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में सकारात्मक झुकाव नहीं आता है, तो फिर पार्टी के पास विकल्प क्या रह जाता है?
भाजपा हाईकमान को एक संशय प्रधानमंत्री की छवि को लेकर भी है। पिछले आम चुनाव के परिणाम के समान इस आम चुनाव में भी मध्यप्रदेश में भी यदि वहीं पिछले परिणाम दोहराये गये तो, दो चुनाव लगातार हारने की स्थिति में 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री की *जिताऊ छवि* को गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता हैं। इसलिए मध्यप्रदेश में लगातार पार्टी संगठन के स्तर पर कसावट लाकर धरातल पर कार्यकर्ताओं को चुनाव की भट्टी में धोक रही है। पहली बार काफी समय बाद यह देखने को मिला कि भाजपा के पहले कांग्रेस ने प्रियंका गांधी की जबलपुर में सभा कराकर चुनावी एलान की घोषणा कर दीथी। याद कीजिए मध्यप्रदेश के चुनावों में प्रधानमंत्री की इसके पूर्व इतनी भागीदारी नहीं रही। 19 साल के भाजपा के शासन और *प्रयोगशाला* होने के बाद भी यदि आज प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में या नाम पर चुनाव लड़ने की नीति बनाई जा रही है, तो निश्चित रूप से भाजपा कहीं न कहीं कमजोर होती दिख रही है। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम से भी यही सिद्ध होता है। प्रधानमंत्री के चेहरे का प्रभाव लड़ाई को कांटे में और कांटे की लड़ाई को जीत में बदल सकता है। "अलख राजी तो ख़लक़ राजी"।