क्या ‘‘सपेरों‘‘ के "अच्छे दिन" लौट रहे हैं?

   राजनीति में अब कोबरा की आवश्यकता महसूस होनेे लगी है। इससे एक फायदा यह होगा कि "सपेरों" को भी रोजगार मिल जायेगा। बिना सपेरों के ‘‘नागों’’ का सार्वजनिक प्रदर्शन "अलक्षित" लक्ष्य को भी नुकसान पहुंचा सकता है


राजीव खण्डेलवाल:-

भारत विभिन्न संस्कृतियों का देश है। एक समय देश के विभिन्न भागों में खासकर ग्रामीण अंचलों में शेरों (सर्कसों में), बंदरो, सांपों, तोता, कबूतर, पक्षियों, सांडों, बैलों इत्यादि का सार्वजनिक प्रदर्शन कर जनता का मनोरंजन कर उनसे लगे लोग अपनी रोजी-रोटी कमाते रहे है। वन संरक्षण (जीव अत्याचार) अधिनियम 1980 के आने के बाद इन सब के सार्वजनिक प्रदर्शन पर लगभग रोक लग जाने से इनसे जुड़े लोग बेरोजगार से हो गए हैं। लेकिन कहते हैं ना कि ‘‘राजनीति जो ना कराए वह थोड़ा है’’। अर्थात "राजनीति: निमित्तम् बहुकृत वेषा" । आज की ‘राजनीति में खासकर चुनावी राजनीति में आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद,‘‘सब कुछ जायज‘‘ है। इसलिए कि आज अधिकतर "गैर जायज" लोग ही राजनीति चला रहे हैं।

              जायज क्या है? बात कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में प्रधानमंत्री की चुनावी ऐतिहासिक मेघा रैली के मंच पर उपस्थित फिल्म ‘‘मृगया’’ के लिये राष्ट्रीय पुरूस्कार प्राप्त पूर्व टीएमसी (तृणमूल) सांसद प्रसिद्ध फिल्मी वेटरन कलाकार मिथुन चक्रवर्ती के कथन की है। उन्होंने बंगाली भाषा में एक अपनी फिल्म का एक संवाद बोला है, जिसका अर्थ हैः- ‘‘मुझे एक हानिरहित सांप समझने की गलती न करें, मैं एक कोबरा हूं। लोगों को एक बार में डसंकर मार भी सकता हूं’’। वे कहते है कि वह पानी के सांप नहीं है, बल्कि कोबरा हूं,‘‘डसूंगा तो तुम फोटो बन जाओगे’’। भाजपा के किसी भी प्रवक्ता द्वारा उक्त कथन से अपने को अलग करने का कोई बयान फिलहाल अभी तक नहीं आया है। मौनम् स्वीकृति: लक्षणम्" । मिथुन चक्रवर्ती ने भी प्रासंगिकता तथा समय अवसर की नाजुकता को देखते हुय अपने उक्त कथन के लिये खेद प्रकट नहीं किया है। कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड के बाबत एक बात बहुत प्रसिद्ध है की इस ग्राउंड में जो भी पार्टी पूरा कब्जा कर लेती है, वह पूरे बंगाल पर कब्जा कर लेती है। और आज प्रधानमंत्री की प्रथम चुनावी सभा ने यह दिखा दिया है कि पूरा का पूरा ग्राउंड मानव मुंडीयो से भरा पड़ा हुआ है । तब इस तरह के बेहूदा जहरीले बयानों की क्या आवश्यकता है?

इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आज की राजनीति क्या इतनी ‘‘जहरीली‘‘ हो गई है कि उसके जहर की काट के लिए के लिए एक ‘‘जहरीले नाग‘‘ की आवश्यकता हो गई है? क्योंकि कहा यही जाता है कि एक ‘‘जहर‘‘ ही दूसरे ‘‘जहर‘‘ को काट सकता है। जब एक ‘‘जहरीला नाग‘‘ राजनीति में अपने विपक्ष के जहर को समाप्त कर ‘‘निष्प्रभावी‘‘ बनाएगा तो उस जहरीले नाग को चलाने वाला ‘‘सपेरा‘‘ का व्यक्तित्व कैसा हो सकता है, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल हैं। फिर जब यह कोबरा तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के साथ थे और उनके कोटे से राज्यसभा में गए थे, तब उनकी ‘‘मारण शक्ति‘‘ का प्रभाव विपक्षीयों पर क्यों नहीं दिखाई दिया? तब तो संसद में लगातार अनुपस्थिति के कारण उन्हें सांसद की सदस्यता से इस्तीफा तक देना पड़ गया था। तब चर्चित चिटफंड कंपनी सारदा घोटाला में उनका नाम उछला था। अभी तक तो भाजपा को राजनीति में ऐसा ‘‘पारस पत्थर‘‘ माना जाता रहा कि उनके संपर्क में आने पर ‘‘पीतल‘‘ भी ‘‘सोना‘‘ बन जाता है। परंतु अब तो ‘‘संपर्क‘‘ से ‘‘अमृत‘‘ भी ‘‘जहर‘‘ में बदल जाएगा। "विष रस भरा कनक घट जैसा"। शायद इसी को वे "आमार सोनार बांग्ला" कहते हैं।

               एक इंटरव्यू में उन्होंने पूरे पश्चिम बंगाल की जनता को ही कोबरा कह दिया। शायद उनको एहसास हो गया होगा कि, एक कोबरा पूरी (टीएमसी) तृणमूल कांग्रेस को नहीं डस सकती है। उन्हे कई कोबरा की आवश्यकता होगी? आगे उन्होंने यह कहा कि मैं कॉम्प्रोमाइज पॉलिटिक्स नहीं करता हूं। शायद तीसरी चौथी बार दल बदल कर भाजपा में शामिल होकर कॉम्प्रोमाइज पॉलिटिक्स की वे कौन से "सिद्धांत" वाली राजनीति कर रहे है। सिद्धांत पर आधारित राजनीति मिथुन मौशाय से सीखनी होगी?  

                आगे वे कहते है कि ‘‘मारूंगा यहां पर लाश गिरेगी श्मशान में’’। तृणमूल कांग्रेस हिंसावादी राजनीति करते आ रही है, ये आरोप ही भाजपा आज नहीं काफी समय से लगा रही है बल्कि वास्तविकता में भाजपा के सैकड़ों कार्यकर्ता हिंसक राजनैतिक मुठभेड़ों के शिकार होकर में मारे गये है। उसके जवाब में शायद मिथुन ‘दा’ भी मरने मारने व डसंने की बात कह रहे हो? भले ही उनके कहे गये कथन प्रसिद्ध फिल्मों के डॉयलाग हो, परन्तु उनका उन डॉयलागों के बोलने के अवसर व समय का ‘चुनाव’ कितनी प्रासंगिकता लिये है? उन बयानों से ज्यादा उससे उत्पन्न परसेप्पशन पर क्या चिंता करने की ज्यादा आवश्यकता नहीं है?

                खैर! राजनीति में अब "कोबरा" की आवश्यकता महसूस होनेे लगी है। इससे एक फायदा यह होगा कि ‘‘सपेरों’’ को भी रोजगार मिलने के अवसर खुल जाएंगे। क्योंकि बिना प्रशिक्षित सपेरों के ‘‘नागों’’ का सार्वजनिक प्रदर्शन "अलक्षित" लक्ष्य को भी नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिये अब देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए प्रत्येक चुनाव की घोषणा होते ही सपेरों की मांग के विज्ञापन/ज्ञापन निकलने लगेंगे और बहुत से बेरोजगारों को कुछ समय के लिये ही सही रोजगार अवश्य मिल जायेगा। राजनीति में आखिर यह गिरावट कहां जाकर रुकेगी, इस पर आज शायद बुद्धिजीवी वर्ग भी सोचने को तैयार नहीं है?

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