‘‘तीनों कृषि कानूनों की समाप्ति‘‘ एवं ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए ‘‘कानून‘‘ बन जाने से किसानों की समस्याएँ क्या ‘‘सुलझ‘‘ जाएगी?

क्रमशः गतांग से आगे द्वितीय भाग

किसानों की मांग तो यह होनी चाहिए कि सरकार कुल कृषि उत्पाद का कम से कम 50 प्रतिशत या सरकार की आर्थिक क्षमता का आकलन कर जो क्षमता हो उतनी ‘‘न्यूनतम खरीदी‘‘ का कानून बनाया जाए, तभी प्रभावी रूप से किसानों के एक बड़े वर्ग को ‘‘एमएसपी‘‘ का फायदा मिल पाएगा। क्योंकि अभी मात्र 10 प्रतिशत से भी कम की खरीदी होती है। इसका मतलब साफ है कि वर्तमान में लगभग 90 प्रतिशत किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ नहीं मिल पाती है। ‘‘एमएसपी‘‘ न मिलने का एक मात्र कारण यही है की मंडी में स्थानीय स्तर की सरकारी एजेंसियां कृषि उपज का किसानों की आवश्यकता अनुसार खरीदी नहीं करती हैं। इसलिए समस्त किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाती है।




राजीव खंडेलवाल :-

अभी फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण मुख्य बात जो विचारणीय है, वह वास्तविक रूप में ‘‘एमएसपी मिलने‘‘ को लेकर है। मेरे मत में ‘‘एमएसपी‘‘ को लेकर किसान और सरकार दोनों न केवल एक दूसरे को बेवकूफ बना रहे हैं, बल्कि जनता को भी गुमराह किए हुए हैं। इसके लिए आपको किसानों की ‘‘एमएसपी‘‘ के संबंध में मूल समस्या व मुद्दा क्या है? वास्तविकता के साथ इसको समझना होगा, तभी आप पूरे आंदोलन का निष्पक्ष आकलन कर पायेगें। कृषकों की मूल समस्या लगातार घोषित नीति होने के बावजूद उनके संपूर्ण उत्पाद की पूरी या अधिकांश फसल का एमएसपी पर खरीदी का न हो पाना है। इसलिए यदि एमएसपी को कानून के द्वारा बंधनकारी बना कर यह कानूनी अधिकार किसानों को दे दिया जाए तो, उसके उल्लंघन होने पर यह दीवानी व संज्ञेय अपराध हो जायेगा। वैसे यह भी स्पष्ट नहीं है कि मंडी के बाहर नए कानून अनुसार बने ‘‘नए बाजार‘‘ में खरीदी करने पर ‘‘एमएसपी लागू होगी कि नहीं‘‘ और लागू होगी तो कैसे होगी, उसकी निगरानी कैसे होगी? किसानों की उक्त मांग को यदि सरकार स्वीकार भी कर लेती है तो, क्या इससे ‘‘समस्या का हल‘‘ हो जाएगा ? बिल्कुल नहीं। यहीं पर पेच है। यदि सरकार किसानों की जरूरत व मांग के अनुरूप खरीदी ही नहीं करेगी  तो कानून का उल्लंघन कैसे? जब खरीदी न किए जाने के कारण एमएसपी से कम पर खरीदने का अपराध ही घटित नहीं होगा तब एमएसपी से कम पर खरीदी की  समस्या वही की वही रहेगी, जो चली आ रही है।इसलिए वास्तव में किसानों की मांग तो यह होनी चाहिए कि सरकार कुल कृषि उत्पाद का कम से कम 50 प्रतिशत या सरकार की आर्थिक क्षमता का आकलन कर जो क्षमता हो उतनी ‘‘न्यूनतम खरीदी‘‘ का कानून बनाया जाए, तभी प्रभावी रूप से किसानों के एक बड़े वर्ग को ‘‘एमएसपी‘‘ का फायदा मिल पाएगा। क्योंकि अभी मात्र 10 प्रतिशत से भी कम की खरीदी होती है। इसका मतलब साफ है कि वर्तमान में लगभग 90 प्रतिशत किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ नहीं मिल पाती है। ‘‘एमएसपी‘‘ न मिलने का एक मात्र कारण यही है की मंडी में स्थानीय स्तर की सरकारी एजेंसियां कृषि उपज का किसानों की आवश्यकता अनुसार खरीदी नहीं करती हैं। इसलिए समस्त किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाती है। और मंडी के बाहर मांग पूर्ति के आधार पर किसानों का माल बिकता है, जहां एमएसपी से ज्यादा कभी रेट मिल जाता और कभी कम मिलता है। सरकार भी इस बात को स्पष्ट रूप से नहीं स्वीकारती है कि वह किसानों की आवश्यकता के अनुरूप एमएसपी पर खरीदी करती है, करती चली आ रही है और करेगी। सरकार ने आज तक किसानों को यह नहीं बतलाया है, समझाया है कि उसके द्वारा मात्र 10 प्रतिशत से कम खरीदी किए जाने के कारण वह समस्त किसानों को ‘‘एमएसपी‘‘ देने में असमर्थ है। क्योंकि इससे उसके वोट बैंक बिगड़ने का खतरा है। उससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार के पास इतना धन व गोदाम नहीं है कि वह किसानों की आवश्यकता व मांग के अनुरूप उनके उत्पाद का कम से कम 40-50 प्रतिशत खरीदी करें, तो ही किसानों को फसल का वाजिब दाम मिल पाएगा और तभी एमएसपी   प्रभावी रूप से प्रभावशाली हो पाएगी। लेकिन इससे सरकार का आर्थिक ढांचा ही गिर जाएगा। इसलिए इस स्थिति पर इस मुद्दे को लेकर खुलकर किसानों व सरकार के बीच परस्पर बातचीत होनी चाहिए। सरकार के पास कितने आर्थिक संसाधन वर्तमान में उपलब्ध हैं, और भविष्य में आगे उपलब्ध कराए जा सकते हैं, जिसके रहते हुए सरकार किसानों की कितनी परसेंटेज फसल खरीद सकती है? किसानों व उनके नेताओं और किसान संघों को भी यह आकलन करना चाहिए कि, सरकार की आर्थिक ढांचे चरमराए बिना कृषि उत्पाद की कितनी अधिकतम खरीदी हो सकती? क्या प्रत्येक उत्पादक कृषक की न्यूनतम कुछ परसेंटेज खरीदी किया जाना कानूनी रूप से बाध्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त मंडी के बाहर खरीदी पर भी उन व्यापारियों को भी उक्त (प्रस्तावित) बंधनकारी कानून की सीमा में लाया जा सकता है। इस सबके लिये कानून बनाने की बात किसान और सरकार के बीच में होनी चाहिए। तब ही इसका स्थायी निराकरण व समाधान हो सकता है, जिसके लिए आंदोलन किया जा रहा है। लेकिन ऐसा लगता है कि मुद्दों का सही रूप से प्रस्तुतीकरण नहीं हो पा रहा है।बात केंद्रीय कानून मंत्री रविशकर प्रसाद की प्रेसवार्ता की भी कर लें! रविशंकर प्रसाद ने इतिहास का सहारा लेकर समस्त विपक्षी पार्टियों को उनके पूर्व मंे दिये गये कथन, बयान, रूख, घोषणा पत्र इत्यादि के सहारे सफलतापूर्वक आइना जरूर दिखाया। लेकिन वे विपक्ष को आइना दिखाते समय यह भूल गये कि आइना सिर्फ एक पक्ष को ही नहीं देखता है वह आपको भी देख रहा है। जिन मुद्दों को लेकर कानून मंत्री ने विपक्ष को लगभग पलटू राम ठहराते हुये सिर्फ और सिर्फ बहती गंगा में राजनीति करने का आरोप जड़ा है, कृपया कानून मंत्री, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज व राजनाथ सिंह आदि नेताओं के तत्समय के बयानों का भी अवलोकन कर लें। उन समस्त मुद्दों पर तत्समय विपक्ष में रही भाजपा का क्या रूख था? यदि सरकार वर्तमान में किसानों के हित में तीन कृषि सुधार कानूनों को लाने के हक में विपक्ष के उक्त कथनों के सहारे (क्या स्वयं की नीति नहीं है?) सही ठहरा रही है अर्थात तो वह उन मुद्दो को सही कह रही है। तब उस समय भाजपा ने उन किसानों के हितों के मुद्दों के लिए आगे बढ़कर तत्कालीन सत्तापक्ष पर किसानों के हित में निर्णय लेने के लिए क्यों नहीं दबाव बनाया गया था? व आंदोलन किया था? इसलिए राजनीति के बार-बार में यह बात कही जाती है कि इस हमाम में सब नंगे है। शायद राजनीति के वर्तमान गिरते स्तर के लिए ही यही मुहावरा बनाया गया हो?एक बात और जहां तक दलालों को समाप्त करने की बात कुछ निजी व सरकारी व कृषकों के स्तर पर की जा रही है, उसका भी कोई औचित्य नहीं है। किसान अगर मंडी के बाहर बेचेगें तो, दलाल खत्म हो जायेगें। दलाली नहीं देनी पड़ेगी, किसानों को सीधे फायदा होगा, यह तर्क भी तर्क संगत नहीं है। सरकार को इस तर्क को यदि सही मान लिया जाए तो देशभर मेें फैले लाखों दलालों को क्या सरकार बेरोजगार व भूखमरी के द्वार पर लाना चाहती है? दलाल की दलाली का भार किसानों पर नहीं होता है। अंततः उपभोक्ताओं को सस्ते पर उत्पाद मिलने का उक्त सिंद्धात यदि सही है, तो समस्त व्यापार में उत्पादक व उपभोक्ताओं के बीच की कई चेनों की कड़ी को समाप्त कर देना चाहिए? एक उदाहरण से इस बात को समझिये! दवाइयों में अधिकाश दवाइयों में 20 से 30 प्रतिशत तथा इंजेक्शन सर्जिकल उपकरण आदि में कही बहुत ज्यादा लाभाश रहता है। सरकार ने कभी भी दवाई की कीमत कम करने का प्रयास नहीं किया। जबकि कुछ समय से प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने के कारण दवाई विक्रेता स्वयं ही एमआरपी से 10 से 15 प्रतिशत तक कम कीमत ग्राहकों से लेते है। क्या एक उपभोक्ता को उसके जीवन को बचाने वाली, स्वस्थ्य रखने वाली दवाई की कीमत कम करने का दायित्व सरकार का नहीं है। इसीलिए सरकार अपनी सुविधानुसार तर्क गढ़ने का लालच छोड़े। अंत में एक बात और! ‘‘जय जवान जय किसान‘‘ का नारा लगने वाले देश के किसान ‘‘अन्नदाता‘‘ हैं, तो श्रमिक वर्ग क्या? आपने कभी इस पर गंभीरता से सोचा है? इसलिए अब नारा ही होना चाहिए ‘‘जय जवान जय किसान जय श्रमिक‘‘। किसान तो ‘‘अन्नदाता‘‘ तब होता है, जब सरकार उन्हें विभिन्न योजनाओं के माध्यम से छूट, नगद सहायता व सब्सिडी (अनुवृत्ति) देकर सक्षम बनाकर ‘‘दाता (अन्न)‘‘ बनाती है। सोशल मीडिया में एक मैसेज चल रहा है जिस लगभग 34 योजनाओं व कार्यो के अतंर्गत किसान को उक्त छूटे प्राप्त हो रही है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि, कोरोना काल में जब पूरे देश में ‘‘लॉक डाउन‘‘ चला और जब ‘‘अप्रवासी श्रमिकों‘‘ की आवाजाही  देश के एक कोने से दूसरे कोने में हुई, तब आप हम सब ने अपनी ‘‘नग्न नम  गीली होती हुई आंखों‘‘ से बेहद द्रवित व विचलित कर देने वाले किसानों की स्थिति के मार्मिक दृश्य देखे हैं। उन बिचारे श्रमिकों को किसानों के समान ‘‘काजू किशमिश अखरोट और बादाम के लंगर‘‘ तो दूर (मात्र कल्पना की बात) कुछ जगह तो गंगा जल की कुछ बूंदे भी अपने गले की नली को को ‘‘तर‘‘ करने के लिए उपलब्ध नहीं हो पाई थी। धूप, बरसात, भूख व बीमारी के साथ यह श्रमिक गण लगातार दिन-रात चलते रहे।  सिरों पर अपने बुजुर्गों को ढोते रहें। लेकिन उन्हें रास्ते में अधिकतर जगह ‘‘लंगर‘‘ उपलब्ध नहीं हो पाए। यद्यपि कुछ कुछ जगह छुटपुट स्तर पर जरूर कुछ सामाजिक संगठन आगे आए और उन्होंने यथासंभव व्यवस्था भी की। लेकिन यदि हम उनकी तुलना इस किसान आंदोलन की ‘‘व्यवस्था‘‘ से करें, तो वह ‘‘ऊंट में में जीरे‘‘ के समान ही रही। हो सकता है, कुछ पाठकों को ‘‘श्रमिकों की उक्त स्थिति‘‘ का यहां पर ‘‘उल्लेख‘‘ करना शायद ‘‘उचित व सामायिक न‘‘ लग रहा हो। लेकिन भविष्य के लिए (भगवान न करे ऐसी कोई स्थिति कभी उत्पन्न हो) इसका उल्लेख सामयिक व उचित है। ताकि हम स्वयं में आवश्यक  सुधार लाकर भविष्य के लिए ऐसी स्थिति के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। जय जवान! जय किसान! जय हिंद!

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